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मिरे शाने पे रहने दो अभी गेसू ज़रा ठहरो - हिदायतुल्लाह ख़ान शम्सी कविता - Darsaal

मिरे शाने पे रहने दो अभी गेसू ज़रा ठहरो

मिरे शाने पे रहने दो अभी गेसू ज़रा ठहरो

बिखर जाने दो अपने जिस्म की ख़ुशबू ज़रा ठहरो

अधूरा छोड़ कर जाओ न ये क़िस्सा मोहब्बत का

छनकते हैं अभी अरमान के घुंघरू ज़रा ठहरो

सुकून-ए-क़ल्ब की ख़ातिर शब-ए-फ़ुर्क़त मैं चूमूँगा

बना लेने दो तस्वीर-ए-लब-ओ-अब्रू ज़रा ठहरो

मिरी रग रग में जानाँ भर गया है नश्शा-ए-क़ुरबत

उतर जाए तुम्हारे लम्स का जादू ज़रा ठहरो

ये मौसम का तक़ाज़ा और भीगी शब की हसरत है

बदलना इश्क़ में है आख़िरी पहलू ज़रा ठहरो

कलेजा शक़ हुआ जाए बिछड़ने के तसव्वुर से

मोहब्बत दिल में करती है अब हा-ओ-हू ज़रा ठहरो

रवाँ है ख़ून का दरिया मिरी आँखों से ऐ 'शम्सी'

अभी रक़्साँ है दिल में दर्द का जुगनू ज़रा ठहरो

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