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ज़माना देखता है हंस के चश्म-ए-ख़ूँ-फ़िशाँ मेरी - हीरा लाल फ़लक देहलवी कविता - Darsaal

ज़माना देखता है हंस के चश्म-ए-ख़ूँ-फ़िशाँ मेरी

ज़माना देखता है हंस के चश्म-ए-ख़ूँ-फ़िशाँ मेरी

मगर मैं ख़ुश हूँ उन की दास्ताँ है और ज़बाँ मेरी

अकेला हूँ भरी दुनिया में मैं किस को कहूँ अपना

कोई होता तो कर देता मुकम्मल दास्ताँ मेरी

गुज़रता आ रहा हूँ जाने में किन किन मक़ामों से

ज़मीं के बा'द आया रहगुज़र में आसमाँ मेरी

मैं यारब ख़ाक का पुतला सही लेकिन ये क्या कम है

हुई है मुंतख़ब हस्ती बराए इम्तिहाँ मेरी

फ़ना की मंज़िलों पर ख़त्म हैं राहें अनासिर की

यही अब देखना है रूह जाती है कहाँ मेरी

न जाने सिलसिला जाता कहाँ तक जिस्म-ए-ख़ाकी का

ख़ुदा का शुक्र है हद बन गए कौन-ओ-मकाँ मेरी

ज़रा ऐ अज़्म-ए-दिल रुख़ फेर तूफ़ाँ की हवाओं के

सू-ए-गिर्दाब कश्ती ले चली मौज-ए-रवाँ मेरी

ज़बाँ पर ले तो आऊँगा मगर दिल थामना होगा

मुझे मा'लूम है रूदाद-ए-दिल है ला-बयाँ मेरी

कड़क कर बिजलियाँ रह जाएँगी छट जाएँगे बादल

रहेगा ज़िंदगी बन कर सुकून-ए-आशियाँ मेरी

'फ़लक' मैं सर-ज़मीन-ए-'दाग़'-ओ-'ग़ालिब' का हूँ इक ज़र्रा

वतन है शहर-ए-देहली ज़िंदगी उर्दू ज़बाँ मेरी

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