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ये और बात है हर शख़्स के गुमाँ में नहीं - हीरा लाल फ़लक देहलवी कविता - Darsaal

ये और बात है हर शख़्स के गुमाँ में नहीं

ये और बात है हर शख़्स के गुमाँ में नहीं

ज़मीं कहाँ है जो आग़ोश-ए-आसमाँ में नहीं

ज़िया-फ़राज़ जहाँ हैं हज़ार माह-ओ-नुजूम

चराग़ कोई मगर मेरे आशियाँ में नहीं

वफ़ूर-ए-इश्क़ की नैरंगियाँ अरे तौबा

जो दिल में दर्द है वो दिल की दास्ताँ में नहीं

तुम अपना तीर-ए-अदा मेरी रूह में ढूँडो

इन अब्रुओं की लचकती हुई कमाँ में नहीं

ये और बात कि गुलशन पे गिर पड़े बिजली

कमी तो कोशिश-ए-तंज़ीम-ए-गुलिस्ताँ में नहीं

जो अपनी सुस्त-रवी का इलाज कर न सके

मक़ाम उस का कोई अहल-ए-कारवाँ में नहीं

रुमूज़-ए-उक़्बा से अहल-ए-ज़मीं हों क्या वाक़िफ़

किसी भी पहलू कोई रब्त दो-जहाँ में नहीं

'फ़लक' मैं कैफ़िय्यत-ए-दिल से ख़ुद परेशाँ हूँ

किसी फ़ुग़ाँ में असर है किसी फ़ुग़ाँ में नहीं

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