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तारों से माहताब से और कहकशाँ से क्या - हीरा लाल फ़लक देहलवी कविता - Darsaal

तारों से माहताब से और कहकशाँ से क्या

तारों से माहताब से और कहकशाँ से क्या

मेरा वतन ज़मीं है मुझे आसमाँ से क्या

टुकड़े जिगर के हों कि टपकता हो ख़ून-ए-दिल

उनवाँ जो तुम नहीं तो तुम्हें दास्ताँ से क्या

जीना जो जानता हो तड़प कर तिरे बग़ैर

इस को तिरी गली से तिरे आस्ताँ से क्या

उन का न सामना हो उसी में है आफ़ियत

क्या जानिए कि निकले हमारी ज़बाँ से क्या

उतरेगा जब ख़ुमार वही होंगे रंज-ओ-ग़म

दिल को सुकूँ मिलेगा मय-ए-अर्ग़वाँ से क्या

ऐ दिल है किस लिए तुझे आवारगी का शौक़

तू भी बिछड़ गया है किसी कारवाँ से क्या

ग़म है शिकस्त का न ख़ुशी फ़त्ह की 'फ़लक'

मुझ को अमल से काम है सूद-ओ-ज़ियाँ से क्या

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