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साक़िया ये जो तुझ को घेरे हैं - हीरा लाल फ़लक देहलवी कविता - Darsaal

साक़िया ये जो तुझ को घेरे हैं

साक़िया ये जो तुझ को घेरे हैं

इन में कुछ रिंद कुछ लुटेरे हैं

अपनी तहज़ीब खा रही है हमें

साँप के मुँह में ख़ुद सपेरे हैं

जिस ने बख़्शे हैं फूल गुलशन को

उस ने कुछ ख़ार भी बिखेरे हैं

कल जो तूफ़ान था समुंदर में

उस के अब साहिलों पे डेरे हैं

तेरे बारे में कुछ नहीं मा'लूम

हम अगर हैं तो सिर्फ़ तेरे हैं

होश-ओ-ग़फ़लत में पास ही मौजूद

मुझ को वो हर तरफ़ से घेरे हैं

तुम से तो क्या नज़र मिलाएँगे

ख़ुद से भी हम निगाह फेरे हैं

दर-हक़ीक़त वही अदू हैं 'फ़लक'

जिन को कहता है तू कि मेरे हैं

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