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निय्यत अगर ख़राब हुई है हुज़ूर की - हीरा लाल फ़लक देहलवी कविता - Darsaal

निय्यत अगर ख़राब हुई है हुज़ूर की

निय्यत अगर ख़राब हुई है हुज़ूर की

गढ़ लो कोई कहानी हमारे क़ुसूर की

क्यूँ दिल की आग ले न ख़बर दूर दूर की

कौंदी है हर दिमाग़ में बिजली फ़ुतूर की

हर ज़ुल्म पर किया है ज़माने से एहतिजाज

कुछ भी न बन पड़ा तो मज़म्मत ज़रूर की

ता'मीर का तो वक़्त है तख़रीब का जुनूँ

अब भी है आदमी को ज़रूरत शुऊ'र की

ऐ शाम-ए-ग़म की गहरी ख़मोशी तुझे सलाम

कानों में एक आई है आवाज़ दूर की

होश उड़ गए तो होश हक़ीक़त का आ गया

मूसा की बे-हिसी में तजल्ली थी नूर की

कहता है इंक़लाब ज़माना जिसे 'फ़लक'

इक दुनिया मुंतज़िर है उसी के ज़ुहूर की

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