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अश्क-ए-ग़म वो है जो दुनिया को दिखा भी न सकूँ - हीरा लाल फ़लक देहलवी कविता - Darsaal

अश्क-ए-ग़म वो है जो दुनिया को दिखा भी न सकूँ

अश्क-ए-ग़म वो है जो दुनिया को दिखा भी न सकूँ

और गिर जाए ज़मीं पर तो उठा भी न सकूँ

ये मिरे ग़म का फ़साना है रहेगा लब पर

तेरी रूदाद नहीं है कि सुना भी न सकूँ

परतव-ए-हुस्न हूँ इस वास्ते महदूद हूँ मैं

हुस्न हो जाऊँ तो दुनिया में समा भी न सकूँ

तेज़ कुछ वक़्त की रफ़्तार नहीं है लेकिन

तुम अगर साथ न दो पाँव बढ़ा भी न सकूँ

अब वही लोग बिगाड़ी है जिन्हों ने क़िस्मत

चाहते हैं कि मैं तक़दीर बना भी न सकूँ

आज नाकाम सही कल का भरोसा है मुझे

इश्क़ फिर क्या जो तुझे अपना बना भी न सकूँ

दिल कहाँ एक सियह-ख़ाना है रंज-ओ-ग़म का

इस क़दर दाग़ लगे हैं कि मिटा भी न सकूँ

दिल की गहराई से ऐ दोस्त ज़रा कह तो सही

जान ऐसी तो नहीं जिस को गँवा भी न सकूँ

उम्र गुज़री कभी साक़ी ने 'फ़लक' ये न कहा

इतनी पी ले कि तुझे होश में ला भी न सकूँ

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