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आह-ए-ज़िंदाँ में जो की चर्ख़ पे आवाज़ गई - हीरा लाल फ़लक देहलवी कविता - Darsaal

आह-ए-ज़िंदाँ में जो की चर्ख़ पे आवाज़ गई

आह-ए-ज़िंदाँ में जो की चर्ख़ पे आवाज़ गई

पर गए पर न मिरी ख़्वाहिश-ए-पर्वाज़ गई

याद इतना है मिरे लब पे फ़ुग़ाँ आई थी

फिर ख़ुदा जाने कहाँ दिल की ये आवाज़ गई

मैं ने अंजाम से पहले न पलट कर देखा

दूर तक साथ मिरे मंज़िल-ए-आग़ाज़ गई

मौत जिस राह में घबरा के क़दम रखती थी

ज़िंदगी अपनी वहाँ भी ब-सद अंदाज़ गई

पर भी बाज़ू के थे मज़बूत अज़ाएम पुख़्ता

फिर भी बेकार मिरी कोशिश-ए-परवाज़ गई

देखते देखते ख़ामोश हुआ नग़्मा-ए-दिल

तार जब टूट गए साज़ की आवाज़ गई

ऐ 'फ़लक' मैं जो गया सू-ए-फ़लक शोर हुआ

महफ़िल-ए-दहर से इक हस्ती-ए-मुम्ताज़ गई

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