आह-ए-ज़िंदाँ में जो की चर्ख़ पे आवाज़ गई
आह-ए-ज़िंदाँ में जो की चर्ख़ पे आवाज़ गई
पर गए पर न मिरी ख़्वाहिश-ए-पर्वाज़ गई
याद इतना है मिरे लब पे फ़ुग़ाँ आई थी
फिर ख़ुदा जाने कहाँ दिल की ये आवाज़ गई
मैं ने अंजाम से पहले न पलट कर देखा
दूर तक साथ मिरे मंज़िल-ए-आग़ाज़ गई
मौत जिस राह में घबरा के क़दम रखती थी
ज़िंदगी अपनी वहाँ भी ब-सद अंदाज़ गई
पर भी बाज़ू के थे मज़बूत अज़ाएम पुख़्ता
फिर भी बेकार मिरी कोशिश-ए-परवाज़ गई
देखते देखते ख़ामोश हुआ नग़्मा-ए-दिल
तार जब टूट गए साज़ की आवाज़ गई
ऐ 'फ़लक' मैं जो गया सू-ए-फ़लक शोर हुआ
महफ़िल-ए-दहर से इक हस्ती-ए-मुम्ताज़ गई
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