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इस का नहीं है ग़म कोई जाँ से अगर गुज़र गए - हज़ीं लुधियानवी कविता - Darsaal

इस का नहीं है ग़म कोई जाँ से अगर गुज़र गए

इस का नहीं है ग़म कोई जाँ से अगर गुज़र गए

दिख की अँधेरी क़बर पर हम भी चराग़ धर गए

शान-ओ-शिकोह क्या हुए क़ैसर-ओ-जम किधर गए

तख़्त उलट उलट गए ताज बिखर बिखर गए

फ़िक्र-ए-मआश ने सभी जज़्बों को सर्द कर दिया

सड़कों पे दिन गुज़र गया हो के निढाल घर गए

तुंदी-ए-सैल-ए-वक़्त में ये भी है कोई ज़िंदगी

सुब्ह हुइ तो जी उठे रात हुइ तो मर गए

गर्द-ए-सफ़र में खो गए ऐसे हज़ारों राह-रौ

राह में जो ठहर गए आँधियों से जो डर गए

आप का तो मक़ाम था दिल के बुलंद तख़्त पर

आप को आज क्या हुआ दिल से मिरे उतर गए

खिल के रहेंगे देखना चार सू रौशनी के फूल

रात के दश्त की तरफ़ नक़्श-गर-ए-सहर गए

ख़ाक में तेरी मिल गई 'फ़ैज़' के जिस्म की ज़िया

अब तो दयार-ए-महवशाँ! क़र्ज़ तमाम उतर गए

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