हज़ीं तुम अपनी कभी वज़्अ भी सँवारोगे
हज़ीं तुम अपनी कभी वज़्अ भी सँवारोगे
क़मीस ख़ुद ही गिरेगी तो फिर उतारोगे
ख़ला-नवर्दो बहुत ज़र्रे इंतिज़ार में हैं
जहाज़ कौन सा पाताल में उतारोगे
उतर के नीचे कभी मेरे साथ भी तो चलो
बुलंद खिड़कियों से कब तलक पुकारोगे
वो वक़्त आएगा ऐ मेरे अपने संग-ज़नो
महकते फूलों के गजरे भी मुझ पे वारोगे
निकल रही है अगर तीरगी तो क्या तुम लोग
सहर के वक़्त चराग़ों की लौ उभारोगे
तुम्हें क़लम को लहू में डुबोना आता है
'हज़ीं' ज़रूर तुम्ही शेर को निखारोगे
(948) Peoples Rate This