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आँसू को अपने दीदा-ए-तर से निकालना - हज़ीं लुधियानवी कविता - Darsaal

आँसू को अपने दीदा-ए-तर से निकालना

आँसू को अपने दीदा-ए-तर से निकालना

लगता है मेहमान को घर से निकालना

सूखे हुए शजर में लह्हू तो नहिं है ख़ुश्क

कोंपल कोई नुमू की शजर से निकालना

इस यख़-ज़दा फ़ज़ा में गर उड़ने का क़स्द है

बे-हिस रुतों की बर्फ़ को पर से निकालना

जिस सुब्ह के जिलौ में शबों का हुजूम हो

किरनों को ऐसे दाम-ए-सहर से निकालना

जिस से शब-ए-हयात का सन्नाटा टूट जाए

आवाज़ ऐसी साज़-ए-हुनर से निकालना

सब का नहीं ये अहल-ए-बसीरत का काम है

गहरी ख़बर भी सतही ख़बर से निकालना

रस्ता कठिन हो लाख न होना 'हज़ीं' मलूल

पहलू ख़ुशी का रंज-ए-सफ़र से निकालना

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