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कई सितारे यहाँ टूटते बिखरते हैं - हयात लखनवी कविता - Darsaal

कई सितारे यहाँ टूटते बिखरते हैं

कई सितारे यहाँ टूटते बिखरते हैं

सब अपनी सतहा से आख़िर कहाँ उभरते हैं

न जाने कितने अज़ाबों में मुब्तिला हम हैं

इसी लिए तो नई आरज़ू से डरते हैं

हम एक बार मुहय्या न कर सके तुझ को

हज़ार रंग तिरी जुस्तुजू में भरते हैं

ये जुगनुओं की चमक रौशनी नज़र भर की

हवा में उड़ते मुसाफ़िर कहाँ ठहरते हैं

नफ़स नफ़स के लिए सिलसिले तलाश करो

हमेशा लोग यहाँ क़ुर्बतों पे मरते हैं

मैं कोई बहता हुआ बे-कराँ समुंदर हूँ

इक आईने में हज़ार आईने उभरते हैं

वो पस्तियाँ इसी इंसान का मुक़द्दर हैं

बुलंदियों से फ़रिश्ते जहाँ उतरते हैं

हो अपना क़ुर्ब मयस्सर तो कुछ बताएँ भी

कहाँ कहाँ से तिरे साथ हम गुज़रते हैं

'हयात' कुछ तो कहो दोस्तों की महफ़िल में

ग़मों की भीड़ में अपने भी ग़म निखरते हैं

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