Islamic Poetry of Hatim Ali Mehr
नाम | हातिम अली मेहर |
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अंग्रेज़ी नाम | Hatim Ali Mehr |
रातों को बुत बग़ल में हैं क़ुरआँ तमाम दिन
रात दिन सज्दे किया करता है हूरों के लिए
न ले जा दैर से का'बा हमें ज़ाहिद कि हम वाँ भी
क्या बुतों में है ख़ुदा जाने ब-क़ौल-ए-उस्ताद
ज़ुल्फ़ अंधेर करने वाली है
ज़िक्र-ए-जानाँ कर जो तुझ से हो सके
उस ज़ुल्फ़ के सौदे का ख़लल जाए तो अच्छा
उस का हाल-ए-कमर खुला हमदम
पुतली की एवज़ हूँ बुत-ए-राना-ए-बनारस
पोशाक-ए-सियह में रुख़-ए-जानाँ नज़र आया
न दिया बोसा-ए-लब खा के क़सम भूल गए
कूचा में जो उस शोख़-हसीं के न रहेंगे
करते हैं शौक़-ए-दीद में बातें हवा से हम
का'बा-ओ-बुत-ख़ाना वालों से जुदा बैठे हैं हम
जो मेहंदी का बुटना मला कीजिएगा
इस दौर में हर इक तह-ए-चर्ख़-ए-कुहन लुटा
हम से किनारा क्यूँ है तिरे मुब्तला हैं हम
गुल-बाँग थी गुलों की हमारा तराना था
ग़ैर हँसते हैं फ़क़त इस लिए टल जाता हूँ
डुबोएगी बुतो ये जिस्म दरिया-बार पानी में
दिल ले गई वो ज़ुल्फ़-ए-रसा काम कर गई
दरिया तूफ़ान बह रहा है
बुतों का ज़िक्र करो वाइज़ ख़ुदा को किस ने देखा है
बुतों का ज़िक्र कर वाइ'ज़ ख़ुदा को किस ने देखा है
बुतों का सामना है और मैं हूँ
ब-ख़ुदा हैं तिरी हिन्दू बुत-ए-मय-ख़्वार आँखें
ऐ 'मेहर' जो वाँ नक़ाब सर का