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ज़िक्र-ए-जानाँ कर जो तुझ से हो सके - हातिम अली मेहर कविता - Darsaal

ज़िक्र-ए-जानाँ कर जो तुझ से हो सके

ज़िक्र-ए-जानाँ कर जो तुझ से हो सके

वाइज़ एहसाँ कर जो तुझ से हो सके

राज़-ए-दिल ज़ाहिर न हो ऐ दूद-ए-आह

दाग़ पिन्हाँ कर जो तुझ से हो सके

फूँकता है मुझ को ये सोज़-ए-दरूँ

चश्म-ए-गिर्यां कर जो तुझ से हो सके

ऐ मसीहा मुझ को है आज़ार-ए-इश्क़

मेरा दरमाँ कर जो तुझ से हो सके

क़ैस को रोता हूँ ऐ दश्त-ए-जुनूँ

फ़िक्र-ए-दामाँ कर जो तुझ से हो सके

चुप है क्यूँ ओ बुत ख़ुदा की वास्ते

कुछ तो हूँ-हाँ कर जो तुझ से हो सके

दिल तो उस पे आज सदक़े हो गया

तू भी ऐ जाँ कर जो तुझ से हो सके

ला मुग़ल की तेग़-ए-अबरू का जवाब

अज़्म-ए-सफ़हाँ कर जो तुझ से हो सके

राज़-पोशी मेरी दूद-ए-आह की

दूद-ए-क़ुल्याँ कर जो तुझ से हो सके

खेत दिखला मुझ को ऐ शमशीर-ए-यार

कार-ए-दहक़ाँ कर जो तुझ से हो सके

ख़िरमन-ए-माह-ए-दरख़शाँ को उड़ा

कार-ए-दहक़ाँ कर जो तुझ से हो सके

ता-ब-कै याद-ए-रुख़-ए-जानाँ दिला

हिफ़्ज़ क़ुरआँ कर जो तुझ से हो सके

वो परी मेरी मुसख़्ख़र हो ये काम

ऐ सुलैमाँ कर जो तुझ से हो सके

एक दिन दीवार ही फादुंगा मैं

ख़ैर दरबाँ कर जो तुझ से हो सके

यूँ ही ज़ाहिर हो शब-ए-फ़ुर्क़त की सुब्ह

दाग़ पिन्हाँ कर जो तुझ से हो सके

ऐ फिरंगन ख़ाना-ए-वीराँ मिरा

इंग्लिस्ताँ कर जो तुझ से हो सके

कर मिरा घर फ़ैज़-ए-मक़दम से बहिश्त

मुझ को रिज़वाँ कर जो तुझ से हो सके

झिड़कियाँ दी गालियाँ दी दिल दुखा

ऐ मिरी जाँ कर जो तुझ से हो सके

नज़अ में तो जाए शर्ब-ए-मय पिला

साक़ी एहसाँ कि जो तुझ से हो सके

तू ही तुर्बत पर मिरी चादर चढ़ा

माह-ए-ताबाँ कर जो तुझ से हो सके

ऐ दिल-ए-नालाँ कहाँ तक शोर-ओ-ग़ुल

ज़ब्त-ए-अफ़्ग़ाँ कर जो तुझ से हो सके

'मेहर' यूँ फ़िक्र-ए-परेशाँ ता-ब-कै

जम्अ' दीवाँ कर जो तुझ से हो सके

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