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वारिद कोह-ए-बयाबाँ जब में दीवाना हुआ - हातिम अली मेहर कविता - Darsaal

वारिद कोह-ए-बयाबाँ जब में दीवाना हुआ

वारिद कोह-ए-बयाबाँ जब में दीवाना हुआ

कोहकन से दोस्ती मजनूँ से याराना हुआ

वहशत-अफ़्ज़ा किस क़दर अपना भी अफ़्साना हुआ

मेरा क़िस्सा सुनते सुनते क़ैस दीवाना हुआ

ख़ार-ए-सहरा पर ख़िरामाँ जब मैं दीवाना हुआ

ख़ून-ए-पा से रश्क-ए-पाएँ बाग़ वीराना हुआ

आँख नर्गिस से लड़ा कर आश्ना ही अंदलीब

ऐ गुल-ए-तर एक मैं और सब्ज़ा बेगाना हुआ

पहनिए कफ़नी क़नाअ'त है लिबास फ़क़ीर में

कब तब्दील उस को शक्ल रख़्त-ए-शाहाना हुआ

कल वहाँ पर होवेगा गोर-ए-ग़रीबाँ का मक़ाम

आज जिस जा पर बना क़सर-ए-अमीराना हुआ

बैअत-ए-दस्त-ए-सुबू का पस प्याला पी लिया

ताक का शजरा मिला मशरब भी रिंदाना हुआ

शम-ए-कोकिल देखते ही अंजुमन में फटक गया

इक जले तन आशिक़ों में हम सा परवाना हुआ

टल गई सर से बला अपना मुक़द्दर खुल गया

मू-ए-सर में आज दस्त-ए-यार का शाना हुआ

अब कहीं कोई ठिकाना ही नहीं जुज़ कू-ए-यार

मुर्तद-ए-काअबा हुआ मर्दूद-ए-बुत-ख़ाना हुआ

जाम-ए-कौसर साक़ी-ए-कौसर भी देंगे हश्र में

दस्त-ए-साक़ी से इनायत मुझ को पैमाना हुआ

कोहर की क़ुतुबें हैं ऐ मह तिरी तस्बीह में

कौकब-ए-सय्यारा साँ रौशन हर इक दाना हुआ

कौन ऐसा है जो मुझ बेकस की दिलदारी करे

दरपा-ए-जाँ दोस्त दुश्मन अपना बेगाना हुआ

ख़ूब ही पकड़े ये काफ़िर भी बला की साँप थे

पंजा-ए-अफ़्सूनगर का ज़ुल्फ़ों में तिरी शाना हुआ

तुम बता दो किस जगह रखे हैं दिल उश्शाक़ के

ढूँढ लूँगा आप मेरा दिल ही पहचाना हुआ

सोज़न-ए-ईसा ने उस के पाँव के मोज़े सिए

पंजा-ए-ख़ुर्शीद हाज़िर ले के दस्ताना हुआ

चाहता हूँ अपनी ज़ंजीरें जुनूँ के जोश में

रिज़्क़ मेरे वास्ते ज़ंजीर का दाना हुआ

दर-ब-दर मारा फिरा मैं जुस्तुजू-ए-यार में

ज़ाहिद-ए-काअबा हुआ रहबान-ए-बुतख़ाना हुआ

नाम पर मुझ बादा-कश के साद चश्म-ए-मस्त है

नामा-ए-आमाल मेरा ख़त पैमाना हुआ

मेरे घर आया है मेरे शे'र सुनने को वो 'मेहर'

ग़ैरत-ए-बैतुश्शरफ़ अपना भी काशाना हुआ

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