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साथ में अग़्यार के मैं भी सफ़-ए-मक़्तल में हूँ - हातिम अली मेहर कविता - Darsaal

साथ में अग़्यार के मैं भी सफ़-ए-मक़्तल में हूँ

साथ में अग़्यार के मैं भी सफ़-ए-मक़्तल में हूँ

सूरत-ए-तरकीब-ए-मौज़ूँ मिस्रा-ए-मोहमल में हूँ

मुझ सा रंगीं-तब्अ' है तीरा-दरूनों में ख़राब

मैं शराब-ए-अर्ग़वानी हूँ मगर बोतल में हूँ

गंदहा-ए-ना-तराशीदा हैं हम सोहबत मिरी

इन दिनों तो मैं भी ख़ुशबू की तरह संदल में हूँ

आदमी बे-हिस-ओ-मस मैं सूरत-ए-मर्दुम गियाह

शहर में हूँ मैं इलाही या किसी जंगल में हूँ

पर्दा-दार-ए-गिर्या-ए-बे-इख़्तियारी फ़क़्र है

बर्क़ है अब्र-ए-सियह में और मैं कम्मल में हूँ

हासिल-ए-नेकी हूँ नेकों को बदों को बद हूँ 'मेहर'

मेरा ही परतव अनत में है मैं ही हंज़ल में हूँ

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