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पोशाक-ए-सियह में रुख़-ए-जानाँ नज़र आया - हातिम अली मेहर कविता - Darsaal

पोशाक-ए-सियह में रुख़-ए-जानाँ नज़र आया

पोशाक-ए-सियह में रुख़-ए-जानाँ नज़र आया

शब को हमें ख़ुर्शीद दरख़्शाँ नज़र आया

देखा न कहीं कुफ़्र न ईमाँ नज़र आया

हिन्दू कोई पाया न मुसलमाँ नज़र आया

मल्बूस-ए-सियह में रुख़-ए-जानाँ नज़र आया

ज़ुल्मात में याँ चश्मा-ए-हैवाँ नज़र आया

बालों में छुपा चेहरा-ए-जानाँ नज़र आया

पर्दा में यहाँ कुफ़्र के ईमाँ नज़र आया

फिर जोश-ए-जुनूँ सिलसिला-ए-जुम्बा नज़र आया

फिर बे-सर-ओ-सामानी का सामाँ नज़र आया

परियाँ जिसे काँधे पे उठाती थीं हमेशा

बर्बाद वो औरंग-ए-सुलैमाँ नज़र आया

बाईं-हमा वुसअ'त भी है क्या ख़्वान-ए-फ़लक-तंग

आसूदा न उस का कोई मेहमाँ नज़र आया

आँखों के तले फिर गया वो आहू-ए-शहरी

जंगल में जो आहू-ए-बयाबाँ नज़र आया

मजमा' में रक़ीबों के खुला था तिरा जोड़ा

कल रात अजब ख़्वाब-ए-परेशाँ नज़र आया

जिस दश्त में फूटे हैं मिरे आबला-पा

कोसों वही सरसब्ज़-ए-नीस्ताँ नज़र आया

ता-साल-ए-दिगर मय कि ख़ुर्द ज़िंदा कि मांद

माह-ए-रमज़ान साक़ी-ए-दौराँ नज़र आया

दीवाना हूँ पर काम में होशियार हूँ अपने

यूसुफ़ का ख़याल आया जो ज़िंदाँ नज़र आया

शोख़-ए-मिज़ा-ए-बरगश्ता की देखी निगह-ए-क़हर

आहू भी मुझे शेर-ए-नियस्ताँ नज़र आया

मायूस फिरी आती हैं क्यूँ मेरी दुआएँ

क्या बाब-ए-इजाबत पे भी दरबाँ नज़र आया

मैं ज़ार-ए-मह-ए-नौ हूँ कि उस ने मुझे ऐ 'मेहर'

जब ग़ौर से देखा तो कहा हाँ नज़र आया

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