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कूचा में जो उस शोख़-हसीं के न रहेंगे - हातिम अली मेहर कविता - Darsaal

कूचा में जो उस शोख़-हसीं के न रहेंगे

कूचा में जो उस शोख़-हसीं के न रहेंगे

तो दैर-ओ-हरम क्या है कहीं के न रहेंगे

नज़दीक कभी ख़ुल्द-ए-बरीं के न रहेंगे

हम-साया भी अब हम तो हसीं के न रहेंगे

मैं सैद हूँ वहशी मुझे फ़ितराकी कहलवा

दो तार भी अब दामन-ए-ज़ेहन के न रहेंगे

पर वाए वसीला हो सुलैमाँ को मुबारक

हम नाम को मुहताज नगीं के न रहेंगे

मर जाएँगे इज़्हार-ए-तमन्ना ही से पहले

सुनने को तिरे मुँह से नहीं के न रहेंगे

मिर्ज़ा मुंशी अपनी गोरा न करेंगे

सुनने को क़िसस-ए-चीन-ए-जबीं के न रहेंगे

सुन लेंगे जो मुझ ग़म-ज़दा के नाला-ए-मौज़ूँ

मुश्ताक़ वो दीवान-ए-हज़ीं के न रहेंगे

दरवाज़ा का पर्दा तो रहे कान का पर्दा

हम रू-ब-रू उस पर्दा-नशीं के न रहेंगे

अल्लाह ने चाहा तो हम ऐ बरहमन-ए-दैर

मुश्ताक़ किसी लोबत-ए-चीं के न रहेंगे

रुख़्सार से तश्बीह तिरी देंगे हम ऐ जान

जब दाग़ रुख़-ए-माह-ए-मुबीं के न रहेंगे

ओढ़ते हुए ये ताइर-ए-रंग अपना जो देखा

तो होश बजा रूह-ए-अमीं के न रहेंगे

किस दर्द की आवाज़ से चिल्लाई है बुलबुल

हम पास तो उस मुर्ग़-ए-हज़ीं के न रहेंगे

देखेंगे जो उस बुत को तो वल्लाह यक़ीं है

ईमान बजा अहल-ए-यक़ीं के न रहेंगे

पाबंद रहे कौन यहाँ नाम की ख़ातिर

हल्क़ा में कभी मिस्ल नगीं के न रहेंगे

हम ढूँडते फिरते हैं तुझे दैर-ओ-हरम में

गर है ये तमन्ना तो कहीं के न रहेंगे

पाबंद हुए शक्ल-ए-असीर अब तो यहाँ 'मेहर'

ऐसा ही जो दिल है तो कहीं के न रहेंगे

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