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इस दौर में हर इक तह-ए-चर्ख़-ए-कुहन लुटा - हातिम अली मेहर कविता - Darsaal

इस दौर में हर इक तह-ए-चर्ख़-ए-कुहन लुटा

इस दौर में हर इक तह-ए-चर्ख़-ए-कुहन लुटा

औरों का ज़र लुटा मिरा नक़्द-ए-सुख़न लुटा

ख़ल्वत-नशीं हो तो दिल-ए-आशिक़ में कर जगह

यूँ दौलत-ए-जमाल न ऐ सीम-तन लुटा

बुलबुल को कैसी कैसी हुईं आफ़तें नसीब

गुलचीं के दस्त-ए-ज़ुल्म से क्या क्या चमन लुटा

फ़रियाद तक ख़ुदा से न की ऐ सनम तिरी

मैं बे-ज़बाँ तिरे यहाँ ऐ बे-दहन लुटा

नब्बाश की जफ़ाएँ हुईं हम पे बा'द-ए-मर्ग

ऐ आसमान ज़ेर-ए-ज़मीं भी कफ़न लुटा

झोंके चले हवा के परेशाँ हुई वो ज़ुल्फ़

ख़ुशबू तमाम फैली है मुश्क-ए-ख़ुतन लुटा

'हातिम' वो हूँ कि बा'द-ए-फ़ना दिल को दूँ सलाह

अब क़ब्र में भी ख़ाक उड़ाया कफ़न लुटा

बे-दिल सुख़न हूँ 'मेहर' पढ़ूँ सिन्न-ए-ईसवी

औरों का ज़र लुटा मिरा नक़्द-ए-सुख़न लुटा

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