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हम से किनारा क्यूँ है तिरे मुब्तला हैं हम - हातिम अली मेहर कविता - Darsaal

हम से किनारा क्यूँ है तिरे मुब्तला हैं हम

हम से किनारा क्यूँ है तिरे मुब्तला हैं हम

ऐ बहर-ए-हुस्न आ इधर आ आश्ना हैं हम

नाक़ूस मय-कदे में बजाया तो ये कहा

बंदे गुनाहगार तिरे ऐ ख़ुदा हैं हम

पर्वा नहीं है तुम को तो है तुम पे क्यूँ मरें

दूभर न ज़िंदगी है न घर से सिवा हैं हम

हम से किसी के ग़म्ज़ा-ए-बेजा उठेंगे क्या

नाज़ुक-मिज़ाज लोग हैं हम मीरज़ा हैं हम

अब क्या बनेगी उन से तबीअ'त बिगड़ गई

अब ख़ुश रहें वो जान से अपनी ख़फ़ा हैं हम

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