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गुज़रा अपना पस-ए-मुर्दन ही सही - हातिम अली मेहर कविता - Darsaal

गुज़रा अपना पस-ए-मुर्दन ही सही

गुज़रा अपना पस-ए-मुर्दन ही सही

कूचा-ए-यार में मदफ़न ही सही

ख़ैर जो रंग नहीं है तो न हो

तेग़ खींचो मिरी गर्दन ही सही

क़ब्र-ए-बुलबुल पे चलूँ रोने को

आज गुलज़ार में शेवन ही सही

बुत तो वल्लाह बना लेंगे कभी

शोर-ए-नाक़ूस बरहमन ही सही

जोश-ए-वहशत है दिला नज्द को चल

सैर करने के लिए बन ही सही

शम्अ' तो यार चढ़ाता ही नहीं

दाग़-ए-दिल क़ब्र में रौशन ही सही

हाल कुछ मिरे गरेबाँ में नहीं

ऐ जुनूँ दश्त का दामन ही सही

कोई हम-चश्म तो हो ज़िंदाँ में

हैरती दीदा-ए-रौज़न ही सही

मिस्सी मालीदा दहन में है कलाम

बोसा-हा-ए-ग़ुन्चा-ए-सौसन ही सही

नासेहा उस की बुराई तो न कर

न सही दोस्त वो दुश्मन ही सही

गुल-रुख़ों से तो हुई क़त्अ उमीद

'मेहर' नज़्ज़ारा-ए-गुलशन ही सही

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