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ग़ैर हँसते हैं फ़क़त इस लिए टल जाता हूँ - हातिम अली मेहर कविता - Darsaal

ग़ैर हँसते हैं फ़क़त इस लिए टल जाता हूँ

ग़ैर हँसते हैं फ़क़त इस लिए टल जाता हूँ

मैं बयाबानों में रोने को निकल जाता हूँ

जोश वहशत का हुआ मौसम-ए-गुल आ पहुँचा

कुछ दिनों होश में रहता हूँ सँभल जाता हूँ

अपनी रुख़्सत है बुतों से भी अब इंशा-अल्लाह

दैर से सू-ए-हरम आज ही कल जाता हूँ

कूचा-ए-क़ातिल-ए-बे-रहम जिसे कहते हैं

मैं वहाँ दौड़ के मुश्ताक़-ए-अजल जाता हूँ

जब निकलने नहीं देते हैं मुझे ज़िंदाँ से

अपने आपे से मैं नाचार निकल जाता हूँ

ग़ैर अलबत्ता तिरे पाँव में मलते हैं हिना

मैं तो आ कर कफ़-ए-अफ़्सोस ही मल जाता हूँ

मैं जो रोता हूँ तो कहता है न कर बद-शगुनी

बात कहता है वो ऐसी कि दहल जाता हूँ

दोस्त होता है तो होता है वो दुश्मन ऐ 'मेहर'

वो बदल जाता है या कुछ मैं बदल जाता हूँ

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