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दोपहर रात आ चुकी हीला-बहाना हो चुका - हातिम अली मेहर कविता - Darsaal

दोपहर रात आ चुकी हीला-बहाना हो चुका

दोपहर रात आ चुकी हीला-बहाना हो चुका

और मस्ती मिल चुके गेसू में शाना हो चुका

नावक-ए-मिज़्गाँ का अपना दिल निशाना हो चुका

मर चुके हम मौत आने का बहाना हो चुका

अहद-ए-पीरी है जवानी का ज़माना हो चुका

ख़त्म अब मज़मून शे'र-ए-आशिक़ाना हो चुका

अब ख़िज़ाँ है मौसम-ए-गुल का ज़माना हो चुका

हो चुकी गुल-बाँग बुलबुल का तराना हो चुका

शीर से शीरीं को रग़बत थी उन्हें है ज़ौक़-ए-मय

दौर भी अब और है अगला ज़माना हो चुका

साक़िया पीरी में तो शग़्ल-ए-सुबूही है ज़रूर

अब भी पिछ्ला दौर है अगला ज़माना हो चुका

शबनमी पर ओस पड़ती है जो अपनी ज़ीस्त में

तो पस-ए-मुर्दन लहद पर शामियाना हो चुका

हम तो गर्द-ए-कारवाँ थे सब से पीछे रह गए

क़ाफ़िला रेग-ए-रवाँ का भी रवाना हो चुका

आसमाँ पर ता'न-ए-बुख़्ल अहल-ए-ज़मीं को है अबस

पानी पानी हो गया जब दाना दाना हो चुका

चट चुके क़ैद-ए-क़फ़स से अब असीरान-ए-चमन

बा'द वीराने के आबाद आशियाना हो चुका

आमद-ए-फ़स्ल-ए-बहारी की ख़बर लाई नसीम

बाग़ में बुलबुल का तय्यार आशियाना हो चुका

क्या ख़िज़ाँ में आब-ओ-रंग-ए-बाग़ फ़व्वारों से हो

सब ज़र-ए-गुल लुट चुका ख़ाली ख़ज़ाना हो चुका

वाए नादानी कि अब फ़िक्र-ए-सुबुक-दोशी हुई

दफ़्तर-ए-इस्याँ जब अपना बार-ए-शाना हो चुका

गिल उठा ज़ंजीर से परियों का दीवाना है ये

इश्क़ में बदनाम मैं ख़ाना-ब-ख़ाना हो चुका

गोर तक वो साथ मय्यत के रहे हद हो गई

दुश्मन-ए-जाँ से भी हक़्क़-ए-दोस्ताना हो चुका

हम फ़क़ीरों के भी घर लाई थी उन को सादगी

अब वो लिल्लाह है बुतों का कारख़ाना हो चुका

ख़्वाब-ए-ग़फ़लत 'मेहर' कब तक जागिए उठ बैठिए

सुब्ह होने आई शब गुज़री फ़साना हो चुका

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