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दिल ले गई वो ज़ुल्फ़-ए-रसा काम कर गई - हातिम अली मेहर कविता - Darsaal

दिल ले गई वो ज़ुल्फ़-ए-रसा काम कर गई

दिल ले गई वो ज़ुल्फ़-ए-रसा काम कर गई

का'बा को ढह गई ये बला काम कर गई

आया न यार मौत मिरा काम कर गई

नाकाम ही रहा मैं क़ज़ा काम कर गई

ज़ाहिद ने भी नमाज़ को अपनी क़ज़ा किया

वल्लाह उन बुतों की अदा काम कर गई

उस की गली में ख़ाक हमारी न ले चले

अपना कभी न बाद-ए-सबा काम कर गई

ज़ाहिद की आँख में तो बरहमन के दिल में है

तस्वीर-ए-बुत भी नाम-ए-ख़ुदा काम कर गई

बीमार-ए-इश्क़ को हुई सेहत विसाल से

ऐ जालीनूस इक ये दवा काम कर गई

नाले से अपने आह-ए-रसा रात बढ़ गई

नेज़े से बर्छी और सिवा काम कर गई

वो अब तो छेड़ छेड़ के देते हैं गालियाँ

शुक्र-ए-ख़ुदा कि अपनी दुआ काम कर गई

शिकवा नहीं है कुछ मलक-उल-मौत से मुझे

इक रश्क-ए-हूर आ के मिरा काम कर गई

लैला को हो गया तिरी फ़रियाद का गुमान

ऐ क़ैस ज़ंग की भी सदा काम कर गई

छनवाई ख़ाक 'मेहर'-ए-फ़लक-बारगाह को

छोटी सी एक चीज़ बड़ा काम कर गई

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