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छोड़ेंगे गरेबाँ का न इक तार कभी हम - हातिम अली मेहर कविता - Darsaal

छोड़ेंगे गरेबाँ का न इक तार कभी हम

छोड़ेंगे गरेबाँ का न इक तार कभी हम

बैठेंगे जुनूँ में तो न बेकार कभी हम

रहते न इजाज़त के तलबगार कभी हम

होते जो तिरे तालिब-ए-दीदार कभी हम

पहनाएगा हम को वो गुल-ए-ज़ख़्म की बध्धी

पहनाएँगे क़ातिल को जो इक हार कभी हम

दीवाना-नवाज़ी है कि सर को दिए पत्थर

छोड़ेंगे न अब दामन-ए-कोहसार कभी हम

वल्लाह बुतों से नहीं करने के मोहब्बत

रक्खेंगे न अब रिश्ता-ए-ज़ुन्नार कभी हम

अन्क़ा हो जहाँ से मिरी जाँ नाम-ए-हुमा भी

पाएँ जो तिरा साया-ए-दीवार कभी हम

फाहे तो रहे दाग़ जुनूँ पर प-ए-जन्नत

क्या डर है जो रखते नहीं दस्तार कभी हम

तज्वीज़ किया कीजिएगा यूँ हैं सज़ाएँ

या रहम के भी होंगे सज़ा-वार कभी हम

फ़ुर्सत नहीं मिलती है ग़ज़ल कहने की ऐ मेहर

पढ़ते हैं तब इस ढंग के अशआर कभी हम

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