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चैन पहलू में उसे सुब्ह नहीं शाम नहीं - हातिम अली मेहर कविता - Darsaal

चैन पहलू में उसे सुब्ह नहीं शाम नहीं

चैन पहलू में उसे सुब्ह नहीं शाम नहीं

एक दम भी दिल-ए-बीमार को आराम नहीं

रुख़ पर नूर नहीं ज़ुल्फ़-ए-सियह-फ़ाम नहीं

वो ज़माना नहीं वो सुब्ह नहीं शाम नहीं

शहरों शहरों मिरी रुस्वाई का शोहरा पहुँचा

मुझ सा दुनिया में कोई आशिक़-ए-बद-नाम नहीं

चाँद ही तारों की झुरमुट में ज़रा देख ऐ दिल

गों में शोख़-ए-नसारा की ये बू-ताम नहीं

वाइ'ज़ों जाए जहन्नम में फ़ज़ा-ए-जन्नत

ख़ार हैं गुल मेरी नज़रों में जो गुलफ़ाम नहीं

नाले करता हूँ कभी या कभी तदबीर-ए-विसाल

और तो हिज्र की शब में मुझे कुछ काम नहीं

फ़स्ल-ए-गुल आई तो क्या बे-सर-ओ-सामाँ हैं हम

शीशा-ओ-जाम नहीं साक़ी-ए-गुल-फ़ाम नहीं

दिल गया दीन गया जान गई उल्फ़त में

और आग़ाज़ ही देखा अभी अंजाम नहीं

बोसे दो तीन तो ले लेने दी मुझ को लिल्लाह

काम के वक़्त न कर ओ बुत ख़ुद काम नहीं

लख़लख़ला की एवज़ उस ज़ुल्फ़ की बू सूघुँगा

है तप-ए-इश्क़ में सौदा मुझे सरसाम नहीं

नज़'अ में देख के जीता हूँ तिरे कोठे को

लब-ए-ईसा है ये ऐ जान लब-ए-बाम नहीं

'मेहर' बे-लुत्फ़ है बज़्म-ए-शोअ'रा बे-मा'शूक़

बुलबुलें चहचहे में हैं कोई गुलफ़ाम नहीं

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