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बुतों का ज़िक्र करो वाइज़ ख़ुदा को किस ने देखा है - हातिम अली मेहर कविता - Darsaal

बुतों का ज़िक्र करो वाइज़ ख़ुदा को किस ने देखा है

बुतों का ज़िक्र करो वाइज़ ख़ुदा को किस ने देखा है

शरार-ए-संग-ए-मूसा के लिए बर्क़-ए-तजल्ला है

ये हिन्दोस्तान है याँ पर्बतों का रोज़ मेला है

ख़ुदा जाने वो बुत ऐ 'मेहर' देबी है कि दुर्गा है

ये हिन्दोस्तान है याँ पर्बतों का रोज़ मेला है

कोई काली-भवानी कोई देबी कोई दुर्गा है

बुतान-ए-हिन्द में नाम-ए-ख़ुदा कब कोई तुझ सा है

तिरी ज़ुल्फ़ें हैं काली ऐ सनम तू आप दुर्गा है

दिल-ए-नालाँ तुम्हारे हल्क़ा-ए-गेसू में कहता है

मैं हिन्दोस्तान में हूँ काफ़िरों ने मुझ को घेरा है

ये किस काफ़िर की ख़ातिर 'मेहर' चक्कर में तू रहता है

ये किस के वास्ते गर्दिश फ़लक के चर्ख़ पूजा है

सियह रूमाल गोरी गोरी गर्दन में लपेटा है

गले मिलवा दिया शाम-ए-सहर को क्या तमाशा है

गला वो गोरा गोरा उस पे इक रूमाल काला है

वही आलम मिरी आँखों में अब दिन-रात फिरता है

तसव्वुर उस सनम का है हमें काबे से क्या मतलब

चराग़ अपना है दाग़-ए-दिल है जो मंदिर में जलता है

किया है ख़ूँ मिरे दिल का बलिदान इस को कहते हैं

ग़म-ए-फ़ुर्क़त वो काफ़िर है कि दुर्गा पाठ करता है

जुदा है ने'मत-ए-दुनिया से लज़्ज़त बोसा-ए-लब की

वो जोगी हो गया जिस ने ये मोहन-भोग चक्खा है

शरारत से शरारत है बुतो लिल्लाह बाज़ आओ

जलाते हो जो मेरे दिल को तुम क्या ये भी लंका है

हलाल उस ने किया ख़ून-ए-मुसलमाँ वाए बेदर्दी

तिरा दस्त-ए-हिनाई काफ़िर अब ये रंग लाया है

हमेशा है ये नालाँ उस सनम की याद में यारब

जसे हम दिल समझते थे वो नाक़ूस-ए-कलीसा है

बड़ा अंधेर है क्यूँकर न हो दिल को परेशानी

सरासर पेच करती है बला ज़ुल्फ़-ए-चलीपा है

अजब आलम नज़र आया तिरे कूचा में ओ क़ातिल

कहीं कोई सिसकता है कहीं कोई तड़पता है

कहाँ वो क़द कहाँ ये कुंद-हा-ए-ना-तराशीदा

न सर्व ऐसा है ने शमशाद ऐसा है न तूबा है

बता जाएज़ है किस मज़हब में ख़ून-ए-बे-गुनह ज़ालिम

तू हिन्दू है मुसलमाँ है यहूदी है कि तरसा है

सुने मुर्दा तो जी उठ्ठे बदन में रूह फिर आए

गले में ऐ सनम नाम-ए-ख़ुदा क्या तान पल्टा है

ख़ुदा आलम है मज़मून-ए-ख़याली हैं तसव्वुर में

न मुझ को कुछ तअ'ल्लुक़ है न मेरी उस को पर्वा है

ख़ुदा जाने किया किस बुत ने काफ़िर इक मुसलमाँ को

जनेव है गले में 'मेहर' के माथे पे टीका है

किया काफ़िर ने काफ़िर 'मेहर' से मर्द-ए-मुसलमाँ को

जनेव रिश्ता-ए-तस्बीह दाग़-ए-सज्दा टीका है

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