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बुतों का ज़िक्र कर वाइ'ज़ ख़ुदा को किस ने देखा है - हातिम अली मेहर कविता - Darsaal

बुतों का ज़िक्र कर वाइ'ज़ ख़ुदा को किस ने देखा है

बुतों का ज़िक्र कर वाइ'ज़ ख़ुदा को किस ने देखा है

शरार-ए-संग मूसा के लिए बर्क़-ए-तजल्ला है

ये हिंदुस्तान है याँ पर बुतों का रोज़ मेला है

ख़ुदा जाने वो बुत ऐ 'मेहर' देवी है कि दुर्गा है

तसव्वुर उस सनम का है हमें का'बे से क्या मतलब

चराग़ अपना है दाग़-ए-दिल है जो मंदिर में जलता है

जुदा है ने'मत-ए-दुनिया से लज़्ज़त बोसा-ए-लब की

वो जोगी हो गया जिस ने ये मोहन भोग चक्खा है

बता जाएज़ है किस मज़हब में ख़ून-ए-बे-गुनाह ज़ालिम

तू हिन्दू है मुसलमाँ है यहूदी है कि तरसा है

किया काफ़िर ने काफ़िर 'मेहर' से मर्द-ए-मुसलमाँ को

जनेऊ रिश्ता-ए-तस्बीह दाग़-ए-सज्दा टीका है

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