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अजब है 'मेहर' से उस शोख़ की विसाल का वक़्त - हातिम अली मेहर कविता - Darsaal

अजब है 'मेहर' से उस शोख़ की विसाल का वक़्त

अजब है 'मेहर' से उस शोख़ की विसाल का वक़्त

वो दोपहर कि जो मख़्सूस है ज़वाल का वक़्त

मिरी तो ख़ाक भी तेरे क़दम न छोड़ेगी

ज़रा तू आने तो दे अपने पाएमाल का वक़्त

चमन की सैर है बुलबुल पड़े चहकती हैं

हमारे आप के भी है ये बोल-चाल का वक़्त

करो न ज़िक्र रक़ीबों का मुझ से राग न लाओ

ख़ता मुआफ़ नहीं है ये उस ख़याल का वक़्त

अब उन की चाल क़यामत है क्यूँ न दिल पिस जाए

अभी गुज़र गया कब्क-ए-दरी की चाल का वक़्त

मसल है आँख बची माल दोस्तों का हुआ

ज़माना दौलत-ए-दुनिया का है ख़याल का वक़्त

कहाँ ये नोक-पलक फिर कहाँ ये हुस्न-ए-शबाब

इधर को देखो यही तो है देख-भाल का वक़्त

दुआएँ देंगे उन्हें ये फ़क़ीर कम्बल-पोश

इलाही दूर दो-शाले का होवे शाल का वक़्त

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