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आलम-ए-हैरत का देखो ये तमाशा एक और - हातिम अली मेहर कविता - Darsaal

आलम-ए-हैरत का देखो ये तमाशा एक और

आलम-ए-हैरत का देखो ये तमाशा एक और

यार ने आईने में अपना सा देखा एक और

मरने वालों में रहा जाता है जीता एक और

नीम-बिस्मिल हूँ मैं क़ातिल हाथ पूरा एक और

रफ़्ता रफ़्ता दिल को दिल से राह हो जाए कहीं

उन से मिलने का रहे पोशीदा रस्ता एक और

एक तो मिस्सी का नक़्शा जम रहा है शाम से

पान की लाली ने रंग अपना जमाया एक और

मैं ने माना आप ने बोसे दिए मैं ने लिए

वो कहाँ निकली जो है मेरी तमन्ना एक और

याद में इक शोख़ पंजाबी के रोते हैं जो हम

आज-कल पंजाब में बहता है दरिया एक और

उन का झूमर देख कर कहने लगे अहल-ए-ज़मीं

देख ले ऐ आसमाँ अक़्द-ए-सुरय्या एक और

जीते-जी तो दामन-ए-सहरा का ख़िलअत मिल गया

बा'द मरने के मिले उन का दुपट्टा एक और

बज़्म से साक़ी के हम से रिंद निकले पाक-साफ़

अपना अब का'बे में पहुँचेगा मुसल्ला इक और

शाइ'रान-ए-अस्र की तुझ को तो है पैग़म्बरी

बू-सलीमी भी हुए ऐ 'मेहर' पैदा एक और

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