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आफ़्ताब अब नहीं निकलने का - हातिम अली मेहर कविता - Darsaal

आफ़्ताब अब नहीं निकलने का

आफ़्ताब अब नहीं निकलने का

दौर आया शराब ढलने का

साँप कहते हैं ज़ुल्फ़ को शाइ'र

काम करते हैं मुँह कुचलने का

लाख हम चिकनी-चुपड़ी बात करें

उन का दिल अब नहीं फिसलने का

सिफ़त-ए-लब में शेर कहते हैं

अब इरादा है ला'ल उगलने का

कूटते हैं जो अपना हम सीना

है एवज़ छातियाँ मसलने का

क्यूँ न हर तर्ज़ में हो बात नई

पाँ है क़ाबू ज़बाँ बदलने का

एक बोसे की भी जमाए अब

क़स्द है उन को मिस्सी मलने का

नख़्ल-ए-मातम के साए में न ठहर

है मुसाफ़िर जो क़स्द चलने का

चश्म-पोशी से तिफ़्ल-ए-अश्क अपना

ढंग सीखा है अब मचलने का

हिफ़्ज़-ए-तीर-ए-निगह है ऐन ख़ता

नहीं पैग़ाम मौत टलने का

हम भी खेला करेंगे जान पर अब

शग़्ल अच्छा है दिल बहलने का

'मेहर' हिर्बा से दोस्ती ता-चंद

ग़म नहीं रंग के बदलने का

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