Friendship Poetry of Hatim Ali Mehr
नाम | हातिम अली मेहर |
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अंग्रेज़ी नाम | Hatim Ali Mehr |
करते हैं शौक़-ए-दीद में बातें हवा से हम
दोनों उसी के बंदे हैं यकता है वो करीम
दर-ब-दर मारा-फिरा मैं जुस्तुजू-ए-यार में
ज़ुल्फ़ अंधेर करने वाली है
ज़िक्र-ए-जानाँ कर जो तुझ से हो सके
वो ज़ार हूँ कि सर पे गुलिस्ताँ उठा लिया
वारिद कोह-ए-बयाबाँ जब में दीवाना हुआ
उस का हाल-ए-कमर खुला हमदम
रंग-ए-सोहबत बदलते जाते हैं
न दिया बोसा-ए-लब खा के क़सम भूल गए
मेरे ही दिल के सताने को ग़म आया सीधा
कोई ले कर ख़बर नहीं आता
खुल गया उन की मसीहाई का आलम शब-ए-वस्ल
करते हैं शौक़-ए-दीद में बातें हवा से हम
का'बा-ओ-बुत-ख़ाना वालों से जुदा बैठे हैं हम
जो मेहंदी का बुटना मला कीजिएगा
इश्क़-ए-जान-ए-जहाँ नसीब हुआ
हम से किनारा क्यूँ है तिरे मुब्तला हैं हम
गुज़रा अपना पस-ए-मुर्दन ही सही
गुल-बाँग थी गुलों की हमारा तराना था
ग़ैर हँसते हैं फ़क़त इस लिए टल जाता हूँ
डुबोएगी बुतो ये जिस्म दरिया-बार पानी में
दिल ले गई वो ज़ुल्फ़-ए-रसा काम कर गई
चैन पहलू में उसे सुब्ह नहीं शाम नहीं
ब-ख़ुदा हैं तिरी हिन्दू बुत-ए-मय-ख़्वार आँखें
बदन-ए-यार की बू-बास उड़ा लाए हवा
बदन-ए-यार की बू-बास उड़ा लाए हवा
ऐ 'मेहर' जो वाँ नक़ाब सर का
आलम-ए-हैरत का देखो ये तमाशा एक और
आफ़्ताब अब नहीं निकलने का