इस बार मिले हैं ग़म कुछ और तरह से भी
इस बार मिले हैं ग़म कुछ और तरह से भी
आँखें हैं हमारी नम कुछ और तरह से भी
शो'ला भी नहीं उठता काजल भी नहीं बनता
जलता है किसी का ग़म कुछ और तरह से भी
हर शाख़ सुलगती है हर फूल दहकता है
गिरती है कभी शबनम कुछ और तरह से भी
मंज़िल ने दिए ताने रस्ते भी हँसे लेकिन
चलते रहे अक्सर हम कुछ और तरह से भी
दामन कहीं फैला तो महसूस हुआ यारो
क़द होता है अपना कम कुछ और तरह से भी
उस ने ही नहीं देखा ये बात अलग वर्ना
इस बार सजे थे हम कुछ और तरह से भी
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