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उन को जो शुग़्ल-ए-नाज़ से फ़ुर्सत न हो सकी - हसरत मोहानी कविता - Darsaal

उन को जो शुग़्ल-ए-नाज़ से फ़ुर्सत न हो सकी

उन को जो शुग़्ल-ए-नाज़ से फ़ुर्सत न हो सकी

हम ने ये कह दिया कि मोहब्बत न हो सकी

शुक्र-ए-जफ़ा भी अहल-ए-रज़ा ने किया अदा

उन से यही नहीं कि शिकायत न हो सकी

शब का ये हाल है कि तिरी याद के सिवा

दिल को किसी ख़याल से राहत न हो सकी

पा-बोस की भी हम को इजाज़त न दे सके

इतनी भी तुम से क़द्र-ए-मोहब्बत न हो सकी

ग़र्क़-ए-सुरूर-ओ-सूर मुझे पा के दफ़अतन

नासेह से तर्क-ए-मय की नसीहत न हो सकी

ख़ामोशियों का राज़-ए-मोहब्बत वो पा गए

गो हम से अर्ज़-ए-हाल की जुरअत न हो सकी

कर दी ज़बान-ए-शौक़ ने सब शरह-ए-आरज़ू

अल्फ़ाज़ में अगरचे सराहत न हो सकी

लुत्फ़-ए-मज़ीद की मैं तमन्ना तो कर सका

तुम ये तो कह सके कि क़नाअत न हो सकी

क्यूँ इतनी जल्द हो गए घबरा के हम फ़ना

ऐ दर्द-ए-यार कुछ तिरी ख़िदमत न हो सकी

वाइज़ को अपने ऐब-ए-रिया का रहा ख़याल

रिंदों की साफ़ साफ़ मज़म्मत न हो सकी

अरबाब-ए-क़ाल हाल पे ग़ालिब न आ सके

ज़ाहिद से आशिक़ों की इमामत न हो सकी

ऐसा भी क्या इताब कि साक़ी बची-कुची

आख़िर में कुछ भी हम को इनायत न हो सकी

उन से मैं अपने दिल का तक़ाज़ा न कर सका

ये बात थी ख़िलाफ़-ए-मुरव्वत न हो सकी

क्यूँ आए होश में जो इबादत न कर सके

पीर-ए-मुग़ाँ की हम से इताअत न हो सकी

'हसरत' तिरी निगाह-ए-मोहब्बत को क्या कहूँ

महफ़िल में रात उन से शरारत न हो सकी

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