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तुझ से गरवीदा यक ज़माना रहा - हसरत मोहानी कविता - Darsaal

तुझ से गरवीदा यक ज़माना रहा

तुझ से गरवीदा यक ज़माना रहा

कुछ फ़क़त मैं ही मुब्तिला न रहा

आप को अब हुई है क़द्र-ए-वफ़ा

जब कि मैं लाइक़-ए-जफ़ा न रहा

राह-ओ-रस्म-ए-वफ़ा वो भूल गए

अब हमें भी कोई गिला न रहा

हुस्न ख़ुद हो गया ग़रीब-नवाज़

इश्क़ मुहताज-ए-इल्तेजा न रहा

बस-कि नज़्ज़ारा सोज़ था वो जमाल

होश-ए-नज़्ज़ारगी बजा न रहा

मैं कभी तुझ से बद-गुमाँ न हुआ

तू कभी मुझ से आश्ना न रहा

आप का शौक़ भी तो अब दिल में

आप की याद के सिवा न रहा

और भी हो गए वो ग़ाफ़िल-ए-ख़्वाब

नाला-ए-सुब्ह-ए-ना-रसा न रहा

हुस्न का नाज़ आशिक़ी का नियाज़

अब तो कुछ भी वो माजरा न रहा

इश्क़ जब शिकवा संज-ए-हुस्न हुआ

इल्तिजा हो गई गिला न रहा

हम भरोसे पे उन के बैठ रहे

जब किसी का भी आसरा न रहा

मेरे ग़म की हुई उन्हें भी ख़बर

अब तो ये दर्द ला दवा न रहा

आरज़ू तेरी बरक़रार रहे

दिल का क्या रहा रहा न रहा

हो गए ख़त्म मुझ पे जौर-ए-फ़लक

अब कोई मोरिद-ए-बला न रहा

जब से देखी अबुल-कलाम की नस्र

नज़्म-ए-'हसरत' में भी मज़ा न रहा

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