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तोड़ कर अहद-ए-करम ना-आश्ना हो जाइए - हसरत मोहानी कविता - Darsaal

तोड़ कर अहद-ए-करम ना-आश्ना हो जाइए

तोड़ कर अहद-ए-करम ना-आश्ना हो जाइए

बंदा-परवर जाइए अच्छा ख़फ़ा हो जाइए

मेरे उज़्र-ए-जुर्म पर मुतलक़ न कीजे इल्तिफ़ात

बल्कि पहले से भी बढ़ कर कज-अदा हो जाइए

ख़ातिर-ए-महरूम को कर दीजिए महव-ए-अलम

दर-पा-ए-ईज़ा-ए-जान-ए-मुब्तला हो जाइए

राह में मिलिए कभी मुझ से तो अज़-राह-ए-सितम

होंट अपना काट कर फ़ौरन जुदा हो जाइए

गर निगाह-ए-शौक़ को महव-ए-तमाशा देखिए

क़हर की नज़रों से मसरूफ़-ए-सज़ा हो जाइए

मेरी तहरीर-ए-नदामत का न दीजे कुछ जवाब

देख लीजे और तग़ाफ़ुल-आश्ना हो जाइए

मुझ से तन्हाई में गर मिलिए तो दीजे गालियाँ

और बज़्म-ए-ग़ैर में जान-ए-हया हो जाइए

हाँ यही मेरी वफ़ा-ए-बे-असर की है सज़ा

आप कुछ इस से भी बढ़ कर पुर-जफ़ा हो जाइए

जी में आता है कि उस शोख़-ए-तग़ाफ़ुल-केश से

अब न मिलिए फिर कभी और बेवफ़ा हो जाइए

काविश-ए-दर्द-ए-जिगर की लज़्ज़तों को भूल कर

माइल-ए-आराम ओ मुश्ताक़-ए-शिफ़ा हो जाइए

एक भी अरमाँ न रह जाए दिल-ए-मायूस में

यानी आख़िर बे-नियाज़-ए-मुद्दआ हो जाइए

भूल कर भी उस सितम-परवर की फिर आए न याद

इस क़दर बेगाना-ए-अहद-ए-वफ़ा हो जाइए

हाए री बे-इख़्तियारी ये तो सब कुछ हो मगर

उस सरापा नाज़ से क्यूँकर ख़फ़ा हो जाइए

चाहता है मुझ को तू भूले न भूलूँ मैं तुझे

तेरे इस तर्ज़-ए-तग़ाफ़ुल के फ़िदा हो जाइए

कशमकश-हा-ए-अलम से अब ये 'हसरत' जी में है

छुट के इन झगड़ों से मेहमान-ए-क़ज़ा हो जाइए

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