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तासीर-ए-बर्क़-ए-हुस्न जो उन के सुख़न में थी - हसरत मोहानी कविता - Darsaal

तासीर-ए-बर्क़-ए-हुस्न जो उन के सुख़न में थी

तासीर-ए-बर्क़-ए-हुस्न जो उन के सुख़न में थी

इक लर्ज़िश-ए-ख़फ़ी मिरे सारे बदन में थी

वाँ से निकल के फिर न फ़राग़त हुई नसीब

आसूदगी की जान तिरी अंजुमन में थी

इक रंग-ए-इल्तिफ़ात भी उस बे-रुख़ी में था

इक सादगी भी उस निगह-ए-सहर फ़न में थी

मोहताज-ए-बू-ए-इत्र न था जिस्म-ए-ख़ूब-ए-यार

ख़ुशबू-ए-दिलबरी थी जो उस पैरहन में थी

कुछ दिल ही बुझ गया है मिरा वर्ना आज कल

कैफ़ियत-ए-बहार की शिद्दत चमन में थी

मालूम हो गई मिरे दिल को राह-ए-शौक़

वो बात प्यार की जो हुनूज़ उस दहन में थी

ग़ुर्बत की सुब्ह में भी नहीं है वो रौशनी

जो रौशनी कि शाम-ए-सवाद-ए-वतन में थी

ऐश गुदाज़-ए-दिल भी ग़म-ए-आशिक़ी में था

इक राहत-ए-लतीफ़ भी ज़िम्न-ए-महन में थी

अच्छा हुआ कि ख़ातिर-ए-'हसरत' से हट गई

हैबत सी इक जो ख़तरा-ए-दार-ओ-रसन में थी

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