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सियहकार थे बा-सफ़ा हो गए हम - हसरत मोहानी कविता - Darsaal

सियहकार थे बा-सफ़ा हो गए हम

सियहकार थे बा-सफ़ा हो गए हम

तिरे इश्क़ में क्या से क्या हो गए हम

न जाना कि शौक़ और भड़केगा मेरा

वो समझे कि उस से जुदा हो गए हम

दम-ए-वापसीं आए पुर्सिश को नाहक़

बस अब जाओ तुम से ख़फ़ा हो गए हम

हुए मह्व किस की तमन्ना में ऐसे

कि मुस्तग़नी-ए-मा-सिवा हो गए हम

उन्हें रंज अब क्यूँ हुआ हम तो ख़ुश हैं

कि मर कर शहीद-ए-वफ़ा हो गए हम

जब उन से अदब ने न कुछ मुँह से माँगा

तो इक पैकर-ए-इल्तिजा हो गए हम

तिरी फ़िक्र का मुब्तिला हो गया दिल

मगर क़ैद-ए-ग़म से रिहा हो गए हम

फ़ना हो के राह-ए-मोहब्बत में 'हसरत'

सज़ा-वार-ए-ख़ुल्द-ए-बक़ा हो गए हम

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