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सितम हो जाए तम्हीद-ए-करम ऐसा भी होता है - हसरत मोहानी कविता - Darsaal

सितम हो जाए तम्हीद-ए-करम ऐसा भी होता है

सितम हो जाए तम्हीद-ए-करम ऐसा भी होता है

मोहब्बत में बता ऐ ज़ब्त-ए-ग़म ऐसा भी होता है

भुला देती हैं सब रंज ओ अलम हैरानियाँ मेरी

तिरी तमकीन-ए-बेहद की क़सम ऐसा भी होता है

जफ़ा-ए-यार के शिकवे न कर ऐ रंज-ए-नाकामी

उम्मीद ओ यास दोनों हों बहम ऐसा भी होता है

मिरे पास-ए-वफ़ा की बद-गुमानी है ब-जा तुम से

कहीं बे-वजह इज़हार-ए-करम ऐसा भी होता है

तिरी दिलदारियों से सूरत-ए-बेगानगी निकली

ख़ुशी ऐसी भी होती है अलम ऐसा भी होता है

वक़ार-ए-सब्र खोया गिर्या-हा-ए-बे-क़रारी ने

कहीं ऐ ए'तिबार-ए-चश्म-ए-नम ऐसा भी होता है

ब-दावा-ए-वफ़ा क्यूँ शिकवा-संज-ए-जौर है 'हसरत'

दयार-ए-शौक़ में ऐ महव-ए-ग़म ऐसा भी होता है

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