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रविश-ए-हुस्न-ए-मुराआत चली जाती है - हसरत मोहानी कविता - Darsaal

रविश-ए-हुस्न-ए-मुराआत चली जाती है

रविश-ए-हुस्न-ए-मुराआत चली जाती है

हम से और उन से वही बात चली जाती है

उस जफ़ा-जू से बा-ईमा-ए-तमन्ना अब तक

हवस-ए-लुत्फ़-ओ-इनायात चली जाती है

मिल ही जाते हैं पशीमानी-ए-ग़म के अस्बाब

शौक़-ए-हिरमाँ की मुदारात चली जाती है

हम से हर-चंद वो ज़ाहिर में ख़फ़ा हैं लेकिन

कोशिश-ए-पुर्सिश-ए-हालात चली जाती है

दिन को हम उन से बिगड़ते हैं वो शब को हम से

रस्म-ए-पाबंदी-ए-औक़ात चली जाती है

उस सितमगर को सितमगर नहीं कहते बनता

सई-ए-तावील-ए-ख़यालात चली जाती है

निगह-ए-यार से पा लेते हैं दिल की बातें

शोहरत-ए-कश्फ़-ओ-करामात चली जाती है

हैरत-ए-हुस्न ने मजबूर किया है 'हसरत'

वस्ल-ए-जानाँ की यूँही रात चली जाती है

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