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रौशन जमाल-ए-यार से है अंजुमन तमाम - हसरत मोहानी कविता - Darsaal

रौशन जमाल-ए-यार से है अंजुमन तमाम

रौशन जमाल-ए-यार से है अंजुमन तमाम

दहका हुआ है आतिश-ए-गुल से चमन तमाम

हैरत ग़ुरूर-ए-हुस्न से शोख़ी से इज़्तिराब

दिल ने भी तेरे सीख लिए हैं चलन तमाम

अल्लाह-री जिस्म-ए-यार की ख़ूबी कि ख़ुद-ब-ख़ुद

रंगीनियों में डूब गया पैरहन तमाम

दिल ख़ून हो चुका है जिगर हो चुका है ख़ाक

बाक़ी हूँ मैं मुझे भी कर ऐ तेग़-ज़न तमाम

देखो तो चश्म-ए-यार की जादू-निगाहियाँ

बेहोश इक नज़र में हुई अंजुमन तमाम

है नाज़-ए-हुस्न से जो फ़रोज़ाँ जबीन-ए-यार

लबरेज़ आब-ए-नूर है चाह-ए-ज़क़न तमाम

नश-ओ-नुमा-ए-सब्ज़ा-ओ-गुल से बहार में

शादाबियों ने घेर लिया है चमन तमाम

उस नाज़नीं ने जब से किया है वहाँ क़याम

गुलज़ार बन गई है ज़मीन-ए-दकन तमाम

अच्छा है अहल-ए-जौर किए जाएँ सख़्तियाँ

फैलेगी यूँ ही शोरिश-ए-हुब्ब-ए-वतन तमाम

समझे हैं अहल-ए-शर्क़ को शायद क़रीब-ए-मर्ग

मग़रिब के यूँ हैं जमा ये ज़ाग़ ओ ज़ग़न तमाम

शीरीनी-ए-नसीम है सोज़-ओ-गदाज़-ए-'मीर'

'हसरत' तिरे सुख़न पे है लुत्फ़-ए-सुख़न तमाम

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