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क़िस्मत-ए-शौक़ आज़मा न सके - हसरत मोहानी कविता - Darsaal

क़िस्मत-ए-शौक़ आज़मा न सके

क़िस्मत-ए-शौक़ आज़मा न सके

उन से हम आँख भी मिला न सके

हम से याँ रंज-ए-हिज्र उठ न सका

वाँ वो मजबूर थे वो आ न सके

डर ये था रो न दें कहीं वो उन्हें

हम हँसी में भी गुदगुदा न सके

हम से दिल आप ने उठा तो लिया

पर कहीं और भी लगा न सके

अब कहाँ तुम कहाँ वो रब्त-ए-वफ़ा

याद भी जिस की हम दिला न सके

दिल में क्या क्या थे अर्ज़-ए-हाल के शौक़

उस ने पूछा तो कुछ बता न सके

हम तो क्या भूलते उन्हें 'हसरत'

दिल से वो भी हमें भुला न सके

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