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पैरव-ए-मस्लक-ए-तस्लीम-ओ-रज़ा होते हैं - हसरत मोहानी कविता - Darsaal

पैरव-ए-मस्लक-ए-तस्लीम-ओ-रज़ा होते हैं

पैरव-ए-मस्लक-ए-तस्लीम-ओ-रज़ा होते हैं

हम तेरी राह-ए-मोहब्बत में फ़ना होते हैं

शर्म कर शर्म कि ऐ जज़्बा-ए-तासीर-ए-वफ़ा

तेरे हाथों वो पशीमान-ए-जफ़ा होते हैं

छेड़ती है मुझे बेबाकी-ए-ख़्वाहिश क्या क्या

जब कभी हाथ वो पाबंद-ए-हिना होते हैं

न असर आह में कुछ है न दुआ में तासीर

तीर हम जितने चलाते हैं ख़ता होते हैं

अहल-ए-दिल सुनते हैं इक साज़-ए-मोहब्बत की नवा

हम तिरी याद में जब नग़्मा-सरा होते हैं

लज़्ज़त-ए-दर्द न क्यूँ अहल-ए-हवस पर हो हराम

कि वो कम-बख़्त तलबगार-ए-दवा होते हैं

किश्वर-ए-इश्क़ में दुनिया से निराला है रिवाज

काम जो बन न पड़ें याँ वो रवा होते हैं

हेच हम समझे दो आलम को तो हैरत क्या है

रुत्बे उश्शाक़ के इस से भी सिवा होते हैं

जिस्म होता है जुदा जान से गोया 'हसरत'

आसमाँ उन से छुड़ाता है जुदा होते हैं

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