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निगाह-ए-यार जिसे आश्ना-ए-राज़ करे - हसरत मोहानी कविता - Darsaal

निगाह-ए-यार जिसे आश्ना-ए-राज़ करे

निगाह-ए-यार जिसे आश्ना-ए-राज़ करे

वो अपनी ख़ूबी-ए-क़िस्मत पे क्यूँ न नाज़ करे

दिलों को फ़िक्र-ए-दो-आलम से कर दिया आज़ाद

तिरे जुनूँ का ख़ुदा सिलसिला दराज़ करे

ख़िरद का नाम जुनूँ पड़ गया जुनूँ का ख़िरद

जो चाहे आप का हुस्न-ए-करिश्मा-साज़ करे

तिरे सितम से मैं ख़ुश हूँ कि ग़ालिबन यूँ भी

मुझे वो शामिल-ए-अरबाब-ए-इम्तियाज़ करे

ग़म-ए-जहाँ से जिसे हो फ़राग़ की ख़्वाहिश

वो उन के दर्द-ए-मोहब्बत से साज़-बाज़ करे

उम्मीद-वार हैं हर सम्त आशिक़ों के गिरोह

तिरी निगाह को अल्लाह दिल-नवाज़ करे

तिरे करम का सज़ा-वार तो नहीं 'हसरत'

अब आगे तेरी ख़ुशी है जो सरफ़राज़ करे

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