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मुक़र्रर कुछ न कुछ इस में रक़ीबों की भी साज़िश है - हसरत मोहानी कविता - Darsaal

मुक़र्रर कुछ न कुछ इस में रक़ीबों की भी साज़िश है

मुक़र्रर कुछ न कुछ इस में रक़ीबों की भी साज़िश है

वो बे-परवा इलाही मुझ पे क्यूँ गर्म-ए-नवाज़िश है

प-ए-मश्क़-ए-तग़ाफ़ुल आप ने मख़्सूस ठहराया

हमें ये बात भी मिंजुमल-ए-असबाब नाज़िश है

मिटा दे ख़ुद हमें गर शिकवा-ए-ग़म मिट नहीं सकता

जफ़ा-ए-यार से ये आख़िरी अपनी गुज़ारिश है

कहाँ मुमकिन किसी को बारयाबी उन की महफ़िल में

न इत्मीनान-ए-कोशिश है न उम्मीद-ए-सिफ़ारिश है

निहाँ है दिल पज़ीरी जिस के हर हर लफ़्ज़-ए-शीरीं में

ये किस जान-ए-वफ़ा के हाथ की रंगीं निगारिश है

किया था एक दिन दिल ने जो दावा-ए-शकेबाई

सो अब तक उन के नाज़-ए-दिलबरी को हम से काविश है

हुजूम-ए-यास ने बे-दिल किया ऐसा कि 'हसरत' को

तिरे आने की अब उम्मीद बाक़ी है न ख़्वाहिश है

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