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मुदावा-ए-दिल-ए-दीवाना करते - हसरत मोहानी कविता - Darsaal

मुदावा-ए-दिल-ए-दीवाना करते

मुदावा-ए-दिल-ए-दीवाना करते

ये करते हम तो कुछ अच्छा न करते

वफ़ा सादिक़ अगर होती हमारी

वो करते भी तो जौर इतना न करते

हम अच्छा था जो बहर-ए-पर्दा-पोशी

मोहब्बत का तिरी चर्चा न करते

तुम्हारी फ़ित्ना-पर्दाज़ी का शिकवा

जो हम करते तो कुछ बेजा न करते

निगाहें आशिक़ों की थी हवस-कार

वो क्या करते अगर पर्दा न करते

जो फिर मिलने की होती कुछ भी उम्मीद

तो हम उस के लिए क्या क्या न करते

तलब का हौसला होता तो इक दिन

ख़िताब उस बुत से बेबाकाना न करते

हमारा पास उन्हें कुछ भी जो होता

किसी की और हम परवा न करते

शकेबाई का दम रखते तो 'हसरत'

उन्हें यूँ शौक़ से देखा न करते

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