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महरूम-ए-तरब है दिल-ए-दिल-गीर अभी तक - हसरत मोहानी कविता - Darsaal

महरूम-ए-तरब है दिल-ए-दिल-गीर अभी तक

महरूम-ए-तरब है दिल-ए-दिल-गीर अभी तक

बाक़ी है तिरे इश्क़ की तासीर अभी तक

वस्ल उस बुत-ए-बद-ख़ू का मयस्सर नहीं होता

वाबस्ता-ए-तक़दीर है तदबीर अभी तक

इक बार सुनी थी सो मिरे दिल में है मौजूद

ऐ जान-ए-तमन्ना तिरी तक़रीर अभी तक

सीखी थी जो आग़ाज़-ए-मोहब्बत में क़लम ने

बाक़ी है वो रंगीनी-ए-तहरीर अभी तक

इस दर्जा न बेताब हो ऐ शौक़-ए-शहादत

है मियान में उस शोख़ की शमशीर अभी तक

कहने को तो मैं भूल गया हूँ मगर ऐ यार

है ख़ाना-ए-दिल में तिरी तस्वीर अभी तक

भूली नहीं दिल को तिरी दुज़दीदा-निगाही

पहलू में है कुछ कुछ ख़लिश-ए-तीर अभी तक

थे हक़ पे वो बे-शक कि न होते तो न होता

दुनिया में बपा मातम-ए-'शब्बीर' अभी तक

गुज़रे बहुत उस्ताद मगर रंग-ए-असर में

बे-मिस्ल है 'हसरत' सुख़न-ए-'मीर' अभी तक

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