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क्या तुम को इलाज-ए-दिल-ए-शैदा नहीं आता - हसरत मोहानी कविता - Darsaal

क्या तुम को इलाज-ए-दिल-ए-शैदा नहीं आता

क्या तुम को इलाज-ए-दिल-ए-शैदा नहीं आता

आता है पर इस तरह कि गोया नहीं आता

हो जाती थी तस्कीन सो अब फ़र्त-ए-अलम से

इस बात को रोते हैं कि रोना नहीं आता

तुम हो कि तुम्हें वादा-वफ़ाई की नहीं ख़ू

मैं हूँ कि मुझे तुम से तक़ाज़ा नहीं आता

है पास ये किस की निगह-ए-महव-ए-हया का

लब तक जो मिरे हर्फ़-ए-तमन्ना नहीं आता

उन की निगह-ए-मस्त के जल्वे हैं नज़र में

भूले से भी ज़िक्र-ए-मय-ओ-मीना नहीं आता

शोख़ी से वो माना-ए-सितम पूछ रहे हैं

अब लफ़्ज़-ए-जफ़ा भी उन्हें गोया नहीं आता

मैं दर्द की लज़्ज़त से रज़ा-मंद हूँ 'हसरत'

मुझ को सितम-ए-यार का शिकवा नहीं आता

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