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ख़ू समझ में नहीं आती तिरे दीवानों की - हसरत मोहानी कविता - Darsaal

ख़ू समझ में नहीं आती तिरे दीवानों की

ख़ू समझ में नहीं आती तिरे दीवानों की

दामनों की न ख़बर है न गिरेबानों की

जल्वा-ए-साग़र-ओ-मीना है जो हमरंग-ए-बहार

रौनक़ें तुर्फ़ा तरक़्क़ी पे हैं मय-ख़ानों की

हर तरफ़ बे-ख़ुदी ओ बे-ख़बरी की है नुमूद

क़ाबिल-ए-दीद है दुनिया तिरे हैरानों की

सहल इस से तो यही है कि सँभालें दिल को

मिन्नतें कौन करे आप के दरबानों की

आँख वाले तिरी सूरत पे मिटे जाते हैं

शम-ए-महफ़िल की तरफ़ भीड़ है परवानों की

ऐ जफ़ाकार तिरे अहद से पहले तो न थी

कसरत इस दर्जा मोहब्बत के पशीमानों की

राज़-ए-ग़म से हमें आगाह किया ख़ूब किया

कुछ निहायत ही नहीं आप के एहसानों की

दुश्मन-ए-अहल-ए-मुरव्वत है वो बेगाना-ए-उन्स

शक्ल परियों की है ख़ू भी नहीं इंसानों की

हमरह-ए-ग़ैर मुबारक उन्हें गुल-गश्त-ए-चमन

सैर हम को भी मयस्सर है बयाबानों की

इक बखेड़ा है नज़र में सर-ओ-सामान-ए-वजूद

अब ये हालत है तिरे सोख़्ता-सामानों की

फ़ैज़-ए-साक़ी की अजब धूम है मय-ख़ानों में

हर तरफ़ मय की तलब माँग है पैमानों की

आशिक़ों ही का जिगर है कि हैं ख़ुरसन्द-ए-जफ़ा

काफ़िरों की है ये हिम्मत न मुसलमानों की

याद फिर ताज़ा हुई हाल से तेरे 'हसरत'

क़ैस ओ फ़रहाद के गुज़रे हुए अफ़्सानों की

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