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जो वो नज़र बसर-ए-लुत्फ़ आम हो जाए - हसरत मोहानी कविता - Darsaal

जो वो नज़र बसर-ए-लुत्फ़ आम हो जाए

जो वो नज़र बसर-ए-लुत्फ़ आम हो जाए

अजब नहीं कि हमारा भी काम हो जाए

शराब-ए-शौक़ की क़ीमत है नक़्द-ए-जान-ए-अज़ीज़

अगर ये बाइस-ए-कैफ़-ए-दवाम हो जाए

रहीन-ए-यास रहें अहल-ए-आरज़ू कब तक

कभी तो आप का दरबार आम हो जाए

जो और कुछ हो तिरी दीद के सिवा मंज़ूर

तो मुझ पे ख़्वाहिश-ए-जन्नत हराम हो जाए

वो दूर ही से हमें देख लें यही है बहुत

मगर क़ुबूल हमारा सलाम हो जाए

अगर वो हुस्न-ए-दिल-आरा कभी हो जल्वा फ़रोश

फ़रोग़-ए-नूर में गुम ज़र्फ़-ए-बाम हो जाए

सुना है बरसर-ए-बख़ि़्शश है आज पीर मुग़ाँ

हमें भी काश अता कोई जाम हो जाए

तिरे करम पे है मौक़ूफ़ कामरानी-ए-शौक़

ये ना-तमाम इलाही तमाम हो जाए

सितम के बाद करम है जफ़ा के बाद अता

हमें है बस जो यही इल्तिज़ाम हो जाए

अता हो सोज़ वो या रब जुनून-ए-'हसरत' को

कि जिस से पुख़्ता ये सौदा-ए-ख़ाम हो जाए

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